मैं क्यों लिखता हूँ ?

रोज सवेरे, एकांत में बैठे,

आखिर मैं ये कविता क्यों लिखता हूं?

रचित रचनाओं को

कलम की स्याही से तोड़ – मरोड़कर,

कुछ नए सी शक्ल वाला,

इस कथित और बोली गई कविता को,

मैं फिर से आखिर क्यों सुनाता हूं?

कविताएं प्रतिबिंब होती है,

कोठरी में बैठे उस इंसान की,

जो नाखूनों से दीवार पर,

एक रचना रचित कर उस पर,

कालिक पोत देता है,

ताकि उसकी असल कविता

कोई नही पढ़ सके।

और जैसे ही उसकी सा शक्ल

सवेरे मेज़ पर बैठे बाहर का आदमी,

उस कविता को पढ़ना – पढ़ाना चाहता है,

उसे गुमराह कर दिया जाता है ।

एक ऐसी कथित रचना का

चेहरा पढ़ा कर,

जो की कभी सच ही नही था।।

कागज़ की दुनिया में

कागज़ की दुनिया में, बारिश हुई थी,

सपनो की चादर, फिर से फटी थी,

लोग बाग भीगे भीगे, खून के थे छीटे छीतें,

फिर खून की नदियां बहीं थी…

लोगों की आखें फिर से धूलीं थी,

परत धूल की जो उनपे चढ़ी थी,

होठ सारे सिले-सिले, मरते थे ये धीरे-धीरे,

इनपे बारिश अब, तेज़ाब की हुई थी।

जाने ये सारे लोग कभी, जिंदा पड़े थे?

सासें तो है पर, अब ये सारे, मर क्यों गए थे।

क़सूर

अस-सलामु अलायकुम, जी मेरा नाम अशरफ मोहम्मद है। मैं यहीं दिलपट्टियाँ गांव का रहने वाला हूँ, ये अपने अमृतसर से बस लगभग कुछ 45 मिनट ही दूर होगा। घर में मेरी खातून नग़मा और मेरी 9 साल की बेटी, मेरी दुनिया रेशमा रहती है। रेशमा, एकदम शैतान है शैतान, शरारती तो इतनी की आप बन्दर और रेशमा में फर्क ही ना बता पाएं। मगर सच कहूं तो घर की रौनक भी उसी से आती है।

हमारा घर हमेशा से इतना खुशनुमा, इतना खूबसूरत नहीं था। रेशमा के आने से पहले बिलकुल सुना था ये मकान।

नग़मा का बचपन में एक एक्सीडेंट हुआ था, जिसकी वजह से वो कभी माँ नहीं बन सकती थी। मेरे और अम्मी – अब्बू के लिए नग़मा का माँ ना बनना कोई दिक्कत वाली बात नहीं थी, मगर निकाह के कुछ सालों बाद ही नग़मा बड़ी ग़मगीन और दुखी रहने लगी। मानों उसमें कोई जान ही नहीं बची हो। समाज के ताने और सुनी गोद ने उसे अंदर से बिलकुल खोखला कर दिया था। मगर नहीं पता उप्पर वाले ने हमारी कब सुन ली और हमें रेशमा दे दी।

दिसंबर का महीना था, नग़मा हर रोज़ की तरह कुए से पानी लेने जा रही थी। जाड़े के कारण कोहरा इतना घना था कि सूरज मियां तो बादलों की कनकी से बस झाँक ही रहे थे। तो नग़मा ने जैसे ही फाटक खोला, तो उसे देहलीज़ पे एक कपड़े की गठरी दिखी। जैसे ही उसे उठाने उसने हाथ बढ़ाया तो  नग़मा ने डर के मारे अपने कदम पीछे लिए और उसने आवाज़ लगायी…

‘ सुनिए…… दौड़कर आइये यहाँ ‘

मैं खटिये से झटक कर उठा और दौड़ता हुआ देहलीज़ पर पहुँचा।

‘क्या हुआ नग़मा , सब खैरियत ??’

‘ये देखिये.. ‘ उसने हाफ्ते हुए बोला।

‘क्या देखूं? क्या है ये?’

और जैसे ही मैंने अपने हाथ उस गठरी की तरफ बढ़ाए तो मैं भी नग़मा की तरह भोचक्का रह गया। उस कपडे की गठरी में एक बच्ची लपेटी हुई थी। हमारी रेशमा। पहले तो मैं भी थोड़ा सहम गया था, मगर दो – तीन सेकंड बाद मैं तुरंत उस बच्ची को अंदर ले आया और उसे कम्बल से ढक कर उसके बगल में खड़ा हो गया।  नग़मा अभी भी सत्ते में थी, उसे ये समझ नहीं आ रहा था की अभी अभी क्या हुआ है।  मैं फाटक के पास आया, मैंने इधर – उधर थोड़ी जाँच – पड़ताल करी की कहीं इस छोड़ने वाला आस पास तो नहीं है, मगर मुझे कोई नहीं दिखा।

मै नग़मा को ज़ोर से आवाज़ देते हुए घर के अंदर दाखिल हो ही रहा था की नग़मा ने मुझे इशारे से बोला…….

‘चुप रहिये, बच्ची की आँख लगी है’

नग़मा ने धीरे से उस बच्ची को उठाया, इतने धीरे से जैसे वो कोई रोइ की बोरी हो, और उसे लेकर वो खटिये पर बैठ गयी। उसे उस बच्ची को अपनी गोद में खिलाता देख मैं ये समझ गया था की, उसने हमारी सुन ही ली है। हमे उस बच्ची के मज़हब, ज़ात – पात, रंग – रूप से कोई बैर नहीं था। मैंने ये तय कर लिया था की वो बच्ची तो हमारे लिए बस अब उसका तोफहा थी, जिसकी हमें पूरी नाज़ों से देख रेख करनी थी।

नग़मा बोली ‘अब क्या करे हम इसका?’

‘क्या करे का क्या मतलब?’

‘अरे, इस बच्ची का क्या करना है, सुबह होने ही वाली है, पंचो के पास इसे लेकर चले? अब वो ही बता पाएंगे की इस बच्ची का क्या करना है?’

‘नग़मा , तुम बेवकूफ हो क्या? खुदा ने हमारी सुन ली है, ये बच्ची हमारी नमाज़ों का ही तो नतीजा है। उसने तुम्हारी गोद भर दी है नग़मा ।’

‘क्या बकवास कर रहे है आप? हम इसे….’

‘तुम चुप रहो, तुम ही सोचो, क्या इस बच्ची को हमसे ज़ादा कोई प्यार कर सकेगा? एक बार इसकी शक्ल देखो, क्या तुम उसके इस खूबसूरत तोहफे को ठुकरा दोगी? ‘ मैंने उसकी बात को काटते हुए कहा।

‘मगर……’

और उसने बच्ची की तरफ़ देखा। पता नहीं उन चंद लम्हों में क्या हुआ, मगर नग़मा ने जैसे ही उसे देखा उसकी आँखों से आसूं टपकने लगे और वो बस उसे पकड़कर रोने लगी।

‘नग़मा , कोई पूछेगा तो हम कह देंगे की तुम्हारी अजमेर वाली बहेन ने ये बच्ची तुम्हे सौप दी है। उसकी बरकत से यूँ मुँह नहीं फेरते।’ मैंने उसे चुप करते हुए कहा।

मैंने उसे हसते हुए पूछा ‘अब बताओ इसका नाम क्या रखेंगे???’

आसूं पोछने के बाद, एक बड़ी मुस्कान के साथ उसने कहा ‘रेशमा। ‘

हम दोनों ने रेशमा की तरफ देखा और बिना कोई लफ्ज़ इस्तेमाल किये, आँखों ही आँखों में सब कह दिया।  

मैं अमृतसर में यही दिनेश सेठ के यहाँ काम करता हूँ। अब दिलपट्टियाँ गांव है ना, तो मजबूरन काम के लिए मुझे रोज़ अमृतसर आना ही पड़ता है।  जो एक बार सुबह रेशमा के माथे पर बोसा करके निकलता हूँ तो फिर देर रात तक ही वापसी हो पाती है। मुझे अच्छे से याद है, उस रोज़ रेशमा ने ज़िद पकड़ ली थी। जलेबियों की। उफ़ ये लड़की, अब रेशमा और जलेबियाँ जैसे शक्कर और चाशनी, दोनों का एक दूसरे के बिना काम ही नहीं बनता। रेशमा को जलेबियाँ इतनी पसंद है की वो नाश्ते से लेके रात के खाने तक रोज़ जलेबी खा सकती है, और फिर भी रात में अगली सुबह जलेबी खाने का ही सपना देखे।

अब बच्ची की ज़िद के आगे ये बूढ़ा कहाँ ही टिक पाता?

तो मैंनें उससे कहा की लौटते वक़्त मैं उसके लिए जलेबियों के साथ साथ गरम गरम समोसे भी ले आऊंगा। उसने ख़ुशी से पहले तो पुरे घर में घूम-घूमकर कर  सबको बताया और फिर अपनी गुड़िया के साथ खेलने में मशगूल हो गयी। मैं भी फिर साइकिल पे अमृतसर के लिए रवाना हो गया।

मैं जैसे ही सेठ के यहाँ पंहुचा, तो मैंने फटा-फट काम शुरू कर दिया। और थोड़ी देर बाद झिझकते हुए, दबी आवाज़ में मैंने सेठ से पूछा।

‘सेठ, क्या आज थोड़ा जल्दी निकल सकता हूँ, बच्ची ज़िद कर रही थी जलेबियों की। ‘

अब वैसे तो सेठ थोड़े कड़क मिजाज़ के हैं मगर नहीं पता उस दिन ऐसा क्या हुआ की उन्होंने एक बार में हाँ करदी।

‘हाँ हाँ चले जाना, मगर जाने से पहले सारा काम ख़तम कर लेना। ‘ उन्होंने कहा।

मैं बहुत खुश था। मैंने जल्दी से अपना सारा काम निपटा लिया था। और अब समय हो चुका था मेरे निकलने का। तो निकलने से पहले, मैं बगल की हलवाई की दुकान पे दौड़कर गया और गरम गरम समोसों के साथ कड़क चाशनी वाली जलेबियाँ भी खरीद ली। और फिर अपनी साईकिल में फिरसे घर के लिए निकल पड़ा।

जब मैं निकल रहा था तो बस अँधेरा होते ही आया था। हर सेकंड एक एक घंटे के बराबर मालूम हो रहा था, रेशमा का चेहरा बार बार मेरी आँखों के सामने आ रहा था कि मेरी बच्ची कितनी खुश होगी इन जलेबियों को देख के। नहीं पता कैसे, मगर मेरी दिन भर की थकान उसकी एक मुस्कान से दूर हो जाती है। अब क्या पता यह जादू उसकी मुस्कान का है या मेरे प्यार का।

मैं गाँव के पास पंहुचा ही था, तो नहीं पता मगर गाँव से एक अजीब सी रौशनी निकल रही थी। ऐसी रौशनी की, की मनो सब के सब कोई त्यौहार मन रहे हो। हर जगह फटाके, लोगो की आवाज़ें, बच्चों की चहलकदमी सुनाई दे रही थी।

मगर………मैं जैसे ही और पास पहुँचता गया, तो वो रौशनी आग की लपटों में बदल गयी,  वो लोगों  की आवाज़ें चीखों में, और वो चहलक़दमी भगदड़ में। दिलपट्टियाँ त्यौहार नहीं मातम मन रहा था। आग की लपटों में झुलस रहा था मेरा गाँव। उस आग के रास्ते में जो भी आ रहा था वो उसे खा रही थी, चाहे वो माकन हो या फिर कोई बच्चा।

मैं दौड़ते हुए अपने घर पंहुचा। रास्ते में पहचान आने वाले मुझे कई लाशें दिखीं, मगर मुझे ये डर सताया जा रहा था की कहीं,  की कहीं, मेरा परिवार, मेरी रेशमा…..। मैंने खुद को ये सब सोचने से रोका। मैंने खुद को मनाने और समझने की बहुत कोशिश करीं। मगर मैं डर चूका था। जो मैंने अभी तक देखा, उसने मेरे मन में एक खौफ पैदा कर दिया था। मैंने खुदको किसी तरह से घर की दहलीज़ तक पहुंचाया। और………

मैं जैसे ही दौड़ता हुआ दरवाज़े के अंदर दाखिल हुआ तो मैं फिसलकर फर्श पर गिर गया। मैंने खुदको सँभालते हुए ये समझने की कोशिश करी की मैं क्यों फिसला। मैंने अपने हाथों को देखा तो पाया की मेरे हाथ खून से रंगे हुए थे। अपने परिवार के।

मैं जहाँ फर्श पर गिरा, खून में सना हुआ था, उससे कुछ दूर ही नग़मा का जिस्म खून में लथपथ पड़ा था।  उसके हाथों में रोटी का निवाला था। शायद वो रेशमा को खाना  खिला रही होगी, और हमारी शैतान रेशमा घर में भाग रही होगी की बिना जलेबियों के मैं खाना नहीं कहूँगी। मैं यह सोच ही रहा था कि……. मुझे रेशमा दिखाई दी। औंधे मुँह, आँगन के कोने पर पेट के बल लेटे हुए।  मैंने अपने आप को बहुत रोका उसके पास जाने से। मगर मैं खुदको नहीं रोक पाया। मैं किसी तरह फर्श पर से फिसलता हुआ, अपने ही परिवार के खून में लिपटता हुआ अपनी बच्ची के पास पंहुचा।

मैंने उसे धीरे से आवाज़ दी की कहीं वो चमककर ना उठ जाए।

‘रेशमा, ए रेशमा, देखो अब्बू तुम्हारे लिए क्या लाए हैं। तुम्हारी मनपसंद जलेबियाँ। उठो तो मेरी बच्ची। मैंने तुम्हारे लिए समोसे भी लाये हैं। ‘

मैंने उसे हौले हाथ से थाम कर पलटा। उसका जिस्म एकदम फर्श की तरह ठंडा पड़ चूका था। मैंने बिलकुल रुई की गठरी की तरह नाज़ुक हाथों से पकड़ कर अपने गोद में उसका सर रखा। और उसे देखने लगा। मैंने उसे कई आवाज़ें दी।

‘रेशमा, रेशमा, बेटा उठो तो। रेशमा। देखो मैंने तुम्हारे लिए वो सब लाया है जो तुमने कहा था। एक बार तो उठ जाओ। ‘

मगर मेरी रेशमा, मेरा 9 साल की रेशमा उन जलेबियों की तरह ठंडी उस ही फर्श पर पड़ी हुई थी।

मेरी बच्ची का क्या क़सूर था? जिस आँगन में वो आज सुबह दौड़ – दौड़ कर सबको मैं उसके लिए जलेबियाँ लाने वाला हूँ ये बता कर खुश हो रही थी, उस ही आंगन में आज वो एक लाश बनकर कोने में पड़ी हुई थी।

अब मैं कहाँ जाऊँ? किसके पास?

मेरी दुनिया, मेरा परिवार, मुझसे सब ही छीन चुके थे।

मेरा सब ही कुछ तो लूट गया था।

मेरे हाथों के पास मेरी नग़मा जिसने कभी भी किसी बुरा नहीं चाहा, कभी किसीको मजहब से नहीं तोला, उसका जिस्म पड़ा हुआ था।

और मेरी गोद में मेरी बच्ची, जिसका इस बटवारे और इन मज़हबी दंगों से कोई लेना देना ही नहीं था। मेरी रेशमा मरी पड़ी थी।

अब बस ये सवाल है की आखिर किसने मेरी नग़मा, मेरी रेशमा मुझसे छीनी?

आखिर क़सूर है तो है किसका?

इस खून का?

इस बंटवारे का ?

या फिर मेरे मज़हब का ?