स्थिरता एक शिशा

क्या तालाब की स्थिरता ही उसकी सबसे बड़ी शत्रु और उसका उथलापन, छिछलापन ही उसका सबसे करीबी मित्र होता है ?

स्थिरता कितनी शीशे सी होती है तालाब की। एकदम तिलस्मी। मनो वो एक दिवार खड़े कर देती है तालाब और मेरी आँखों के बीच। जैसे जादूगर हाथी गायब करने से पहले स्टेज पर धुंए की दिवार खड़े कर देता था। 

मैं उस तलब की सतह को चीर कर उसके भीतर की दुनिया को जानने की कितनी ही कोशिश क्यों न कर लूँ, मगर ये स्थिरता का शिक्षा कभी पारदर्शी होता ही नहीं है। 

मैं जितना ही जादूगर के धुंए के पास जाता था उतना ही मुझे मेरे ही कद-काठी की एक आकृति उस धुंए में बुनती दिखती। अब होने को उसका अस्तित्व तो मेरे जैसा ही दिखता था। वही दो हाथ, दो पैर, एक सर, दो कान। सब वैसा ही है। असल जैसा। पर सब नक़ल है। और नक़ल हमेशा जाली होता है, सत्य नहीं। 

जैसे ही आकृति के पास जाता हूँ उसे पकड़ने को तो वो हाथ नहीं आता है, हाथ आता है तो एक पत्थर जो मेरे जेब से निकला है। अभी-अभी, इस आकृति को पकड़ने से ठीक पहले, और स्थिरता का शीशे बनने के ठीक बाद। 

मैंने इस पत्थर को कहीं पहले देखा है। उस झील के पास जो घिरा हुआ है, पहाड़ की बर्फीली चोटियों और धुंध से। धुंध अलग, जगह अलग, पानी अलग, पर शीशा वही। स्थिरता का। मैं जहाँ खड़ा हूँ, उसके ठीक उस पार खड़ी है वो आकृति जिसकी आँखें नहीं है, पर फिर भी वो मेरी ओर ही देख रहा है। वो इन पहाड़ो को देख रहा है अब। 

सोचता होगा, कितनी खोखली है इनकी खूबसूरती। वो केवल एक प्रतिबिब्म है, वो भी ऐसा प्रतिबिम्ब जो की स्थिरता के शीशे को कभी भेद नहीं सकेगा। आज तक पहाड़ अंदर नहीं पहुंच पाए।  वे केवल सतह पर ही है। जैसे मैं कभी उस हाथी को ढूंढ़ नहीं पाया। 

मैं शीशा तोड़ने उस पत्थर को झील पर फेकता हूँ तो झील का पानी पत्थर सा कड़क हो जाता है। मेरा फेका पत्थर, पत्थर सी झील पर टिप्पा खता हुआ जा लगता है उस आकृति की आँखों को। और वो आकृति गिर जाती है झील में और उसका पानी हो जाता है स्याह। 

इस स्याह में अब कोई प्रतिबिम्ब नहीं दिख रहा। न पहाड़ों का, न धुंध का, और न ही मेरा। और तभी बर्फीली पहाड़ों से उतरता हुआ मुझे एक हाथी दीखता है। नहीं, असल हठी नहीं, बल्कि उसकी आकृति दिखती है। अब वो पानी में गोते लगा रहा है। मैं स्तभ्ध सा इस कोने पर खड़े हूँ की तभी वो हाथी अपने सूंड से मुझे शीशे की पार की दुनिया में खीच लेता है। 

स्थिरता के शीशे के इस पार सब छिछला है, सब उथल-पुथल है। यहाँ का हर व्यक्ति प्रतिबिम्ब नहीं फेकता। सब सबके करीबी मित्र है। इस पार की दुनिया में जादूगर हाथी गायब नहीं करता। वो गायब किया हुआ हाथी, वापस लाता है। 

मैं।

मैं कौन हूं?

ये मैं अक्सर सोचता हूं। मैं ये अक्सर सोचता हूं कि अगर मैं मैं नहीं होता तो कौन होता? शास्त्रों की मानो तो मुझे इस इंसान योनि में जन्म, करोड़ों योनियों में जन्म लेने के बाद, हजारों सालों और लाखों अच्छे कर्मों के बाद मिला है। और मुझे इस योनि में जन्म लेने का इस संसार और इस अंतरिक्ष को आभार व्यक्त करना चाहिए।

मगर…

बात आभार व्यक्त करने की नहीं है, बात इस सवाल कि है कि मैं कौन हूं। कि मैं क्या हूं? बस एक हाड़ मांस का पुतला, जिसपर एक चमड़ी लगाई गई है, या वो आत्मा को नश्वर है?

और अगर आत्मा नश्वर है, तो मैं भी अमर ही हुआ ना?

और अगर मैं हमेशा से अमर था, तो मेरे अलग अलग योनि में जन्म लेने की बात गलत नहीं हुई?

मैं एक सवाल हूं या जवाब?

मैं एक कहानी हूं या रहस्य?

मैं हूं भी या नहीं?

ये सारे सवालों के जवाब मैं अक्सर ढूंढने की कोशिश करता हूं। कभी किसी पुराण में, तो कभी शून्य के गहरे सागर में। मगर आजतक में इस सवाल के वृत्त में यूं घूम रहा हूं जैसे इसका कोई अंत ही नहीं हो।

अंत, मुझे बचपन से अंत बड़ा रोचक लगता था। हमे हमेशा से पुराणों और शास्त्रों में सिखाया है, कि “मोक्ष” की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का धेय ,कर्तव्य और अंत है।मगर मेरा सवाल ये है कि अंत तो खुद में एक नया आरंभ होता है। तो फिर हम इस मोक्ष के वृत्त में क्यूं फस जाते है? हम हमेशा आरंभ को ज़रा ज्यादा तव्वाजो देते है। मगर अंत के बिना आरंभ का कोई मूल्य है भी?

मैं समय हूं? या मैं स्थिर हूं?

मैं बादल हूं ? या मैं बिजली हूं?

मैं शायद पानी हूं। हां मैं जल ही तो हूं। जिस प्रकार जल सबसे पूर्व मेघा बनकर सुखी ज़मीन पर बरसता है और, एक जल स्त्रोत बन जाता है। और उसके पश्चात वो एक नदी कि धारा में सम्मिलित हो, सागर में मिलने के लिए तत्पर हो जाता है। जो कि फिर से भाप बनकर, मेघा में परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य भी तो उस ही जल की तरह होते है। जो कि समय – समय में खुदको कभी स्थिति तो कभी परिस्थिति के साचे में ढालकर यू बदल लेते है कि मानो उसके परिवर्तन का पता ही नहीं चले!

मैं कौन हूं? मैं क्या हूं?

इस सवाल का शायद कोई जवाब ही नहीं है। क्यूंकि शायद ये सवाल ही ग़लत है। शायद सवाल मैं क्या हूं नहीं, मैं क्यूं हूं होना चाहिए। मेरे जीवित

मेरे जीवित होने का क्या उदेश्य या धेय क्या है? ताकि मैं उसे सम्पूर्ण कर, संतुष्ट हो सकूं।