मैं कौन हूं?
ये मैं अक्सर सोचता हूं। मैं ये अक्सर सोचता हूं कि अगर मैं मैं नहीं होता तो कौन होता? शास्त्रों की मानो तो मुझे इस इंसान योनि में जन्म, करोड़ों योनियों में जन्म लेने के बाद, हजारों सालों और लाखों अच्छे कर्मों के बाद मिला है। और मुझे इस योनि में जन्म लेने का इस संसार और इस अंतरिक्ष को आभार व्यक्त करना चाहिए।
मगर…
बात आभार व्यक्त करने की नहीं है, बात इस सवाल कि है कि मैं कौन हूं। कि मैं क्या हूं? बस एक हाड़ मांस का पुतला, जिसपर एक चमड़ी लगाई गई है, या वो आत्मा को नश्वर है?
और अगर आत्मा नश्वर है, तो मैं भी अमर ही हुआ ना?
और अगर मैं हमेशा से अमर था, तो मेरे अलग अलग योनि में जन्म लेने की बात गलत नहीं हुई?
मैं एक सवाल हूं या जवाब?
मैं एक कहानी हूं या रहस्य?
मैं हूं भी या नहीं?
ये सारे सवालों के जवाब मैं अक्सर ढूंढने की कोशिश करता हूं। कभी किसी पुराण में, तो कभी शून्य के गहरे सागर में। मगर आजतक में इस सवाल के वृत्त में यूं घूम रहा हूं जैसे इसका कोई अंत ही नहीं हो।
अंत, मुझे बचपन से अंत बड़ा रोचक लगता था। हमे हमेशा से पुराणों और शास्त्रों में सिखाया है, कि “मोक्ष” की प्राप्ति ही मनुष्य जीवन का धेय ,कर्तव्य और अंत है।मगर मेरा सवाल ये है कि अंत तो खुद में एक नया आरंभ होता है। तो फिर हम इस मोक्ष के वृत्त में क्यूं फस जाते है? हम हमेशा आरंभ को ज़रा ज्यादा तव्वाजो देते है। मगर अंत के बिना आरंभ का कोई मूल्य है भी?
मैं समय हूं? या मैं स्थिर हूं?
मैं बादल हूं ? या मैं बिजली हूं?
मैं शायद पानी हूं। हां मैं जल ही तो हूं। जिस प्रकार जल सबसे पूर्व मेघा बनकर सुखी ज़मीन पर बरसता है और, एक जल स्त्रोत बन जाता है। और उसके पश्चात वो एक नदी कि धारा में सम्मिलित हो, सागर में मिलने के लिए तत्पर हो जाता है। जो कि फिर से भाप बनकर, मेघा में परिवर्तित हो जाता है। मनुष्य भी तो उस ही जल की तरह होते है। जो कि समय – समय में खुदको कभी स्थिति तो कभी परिस्थिति के साचे में ढालकर यू बदल लेते है कि मानो उसके परिवर्तन का पता ही नहीं चले!
मैं कौन हूं? मैं क्या हूं?
इस सवाल का शायद कोई जवाब ही नहीं है। क्यूंकि शायद ये सवाल ही ग़लत है। शायद सवाल मैं क्या हूं नहीं, मैं क्यूं हूं होना चाहिए। मेरे जीवित
मेरे जीवित होने का क्या उदेश्य या धेय क्या है? ताकि मैं उसे सम्पूर्ण कर, संतुष्ट हो सकूं।