मैं क्यों लिखता हूँ ?

रोज सवेरे, एकांत में बैठे,

आखिर मैं ये कविता क्यों लिखता हूं?

रचित रचनाओं को

कलम की स्याही से तोड़ – मरोड़कर,

कुछ नए सी शक्ल वाला,

इस कथित और बोली गई कविता को,

मैं फिर से आखिर क्यों सुनाता हूं?

कविताएं प्रतिबिंब होती है,

कोठरी में बैठे उस इंसान की,

जो नाखूनों से दीवार पर,

एक रचना रचित कर उस पर,

कालिक पोत देता है,

ताकि उसकी असल कविता

कोई नही पढ़ सके।

और जैसे ही उसकी सा शक्ल

सवेरे मेज़ पर बैठे बाहर का आदमी,

उस कविता को पढ़ना – पढ़ाना चाहता है,

उसे गुमराह कर दिया जाता है ।

एक ऐसी कथित रचना का

चेहरा पढ़ा कर,

जो की कभी सच ही नही था।।

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