कागज़ की दुनिया में, बारिश हुई थी,
सपनो की चादर, फिर से फटी थी,
लोग बाग भीगे भीगे, खून के थे छीटे छीतें,
फिर खून की नदियां बहीं थी…
लोगों की आखें फिर से धूलीं थी,
परत धूल की जो उनपे चढ़ी थी,
होठ सारे सिले-सिले, मरते थे ये धीरे-धीरे,
इनपे बारिश अब, तेज़ाब की हुई थी।
जाने ये सारे लोग कभी, जिंदा पड़े थे?
सासें तो है पर, अब ये सारे, मर क्यों गए थे।